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राजा बख्तावरसिंह

स्वतंत्रता समर के योद्धा राजा बख्तावरसिंह अमझेरा के राजा बख्तावीरसिंह ने आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और ब्रिटिश शासन को नाकों चने चबवा दिये थे। सन् 1857 में ब्रिटिश इस्ट इंण्डिया कम्पनी के विरूद्ध मालवा में हुए विद्रोह के समय अमझेरा (मालवा) के अंतिम शासक 33 वर्षीय राव बख्तावरसिंह रामोत जोधा राठौर थे बख्तावरसिंह राजा अमझेरा पहले शासक थे जिन्होंने मालवा से ब्रिटिश इस्ट इंडिया कम्पनी के शासन को उखाड़ फंेकने के लिए शुरूआत की। अमझेरा के पास भोपावर में अंग्रेजी की छावनी थी। राजा बख्तावरसिंह ने 2 जुलाई 1857 को अपने सैनिकों की फौज को ले भोपावर पर हमला कर दिया। अंग्रेजी फौज संख्या में अधिक थी एवं अस्त्र शस्त्र भी श्रेष्ठ थे, लेकिलन राजा बख्तावरसिंह की फौज पर हमला इतना आक्रामक था कि अंग्रेज फौज भाग खडी हुई। अंग्रेजी छावनी को लूटकर तहस-नहस कर दिया। भोपावर से भागकर अंग्रेज फौज सरदारपुर में रूकी एवं अन्य स्थानों से आने वाली सहायक फौजों की राह देखने लगी। बख्तावर सिंह जी ने अंग्रेजो को फौजी मदद मिलने के पूर्व ही सरदारपुर पर 10 अक्टूबर 1857 को हमला कर दिया। भोपावर की हार से भयभीत अंग्रेज सरदारपुर में बिना सामना किये भाग खडे हुए। राजा बख्तावरसिंह जी को यहां से बन्दूकें, तोपें, गोला बारूद एवं भारी मात्रा में हथियार मिले। भोपावर एवं सरदारपुर से मिली सारी लूट एवं अस्त्र शस्त्रों को लेकर बख्तावर सिंह अमझेरा आ गए। इन्दौर से मिली बडी सहायता लेकर अंग्रेज बडी फौज लेकर अमझेरा पहूंचे। पास के राजपुरा गांव से गोला दागना प्रारम्भ किया। परकोटा तोडने के बाद अंग्रेजी फौज ने नगर में प्रवेश किया। अब नगर की गलियों में संघर्ष होने लगा। अंग्रेज और तलवार भाले लिए राजपूत एक दूसरे पर टूट पडे। अमझेरा के महाजन घर के दरवाजे बंद कर घरों में बैठ गए। संख्या में अधिक होने एवं तोपों और बंदूकों के कारण अंग्रेज भारी पडने लगे। अंग्रेजों ने तोपों को अमझेरा की गलियों में खडा कर किले की दीवार पर गोले दागने लगे। पराजय निश्चित जानकर राजा बख्तावरसिंह अपनी मां और परिवार को लेकर सैनिकों के साथ रात में ही जंगलों में चले गए। यहां घाटियों में रहकर अंग्रेजों के विरूद्ध छापामार युद्ध करने लगे। छापामार हमलों से घबराकर अंग्रेजी फौज नगरों और गांवों से बाहर निकलने में भयाक्रांत होने लगे। कुक्षी से लेकर मनावर, धमनोद, मंण्डलेश्वर तक का इलाका छापामारों ने रौंद डाला। राजा बख्तावरसिंह घाटियों से निकल अंग्रेजों पर टूट पडते और मारकाट कर वापिस घाटियों में लौटा जाते। घाटियों राजा बख्तावरसिंह से लडना आसान नहीं था। यह बात होलकर महाराजा जानते थे, अतः उन्होंने कूटनीति से काम लिया। बोलकर होलकर सेनापति बक्षी खुमानसिंह राठौर 500 सैनिकों के साथ धार रवाना किये गए। लेकिन मार्ग में दिग्ठान रूक गए और अपने संदेश वाहक को धर-नालछा होते हुए घाटियों में भेजा। संदेश मिलते ही बख्तावर सिंह सागौर आए यहीं उनकी भेंट हुई। बक्षी खुमानसिंह ने राजा बख्तावर सिंह जी को महाजन होलकर का शांति संदेश दिया और अंग्रेजों से सम्मानपूर्ण संधि का आश्वासन दे महू होकर इन्दौर आने को कहा। राजा बख्तावरसिंह 14 नवम्बर 1857 को प्रातः सागैर से चलकर सायं महू पहूंचे और अपने सेवकों के साथ धोखे से बंदी बना लिए गए। राजा बख्तावरसिंह जी पर तीन माह तक मुकदमें की कार्यवाही चली और राजा बख्तावरसिंह जी को अपने साथियों सहित मौत की सजा सुना दी गई। 10 फरवरी 1858 को प्रातः 6 बजे उनके अंगरक्षकों व सेवकों को जी.पी.ओ. के सामने नाले किनारे कतार मंे खडा करके गोली मार दी गई। लाशों को वहीं छोड सैनिकों की टुकडी राजा बख्तावरसिंह जी को लेने रेसीडेंसी पहूंची और उन्हें महाराजा यशवंत राव हाॅस्पिटल (एम.वाय.एच.) के पास परिसर स्थित नीम के पेड पर फांसी पर लटका दिया। राजा बख्तावर सिंह को एम.वाय. हाॅस्पिटल के पास बने क्वार्टर परिसर में जिस नीम के पेड पर फांसी दी गई थी, उस नीम के पेड़ के नीचे उनकी प्रतिमा राजपूत समाज द्वारा स्थापित की गई है। जहांे देशभक्त नागरिक श्रद्धा सुमन अर्पित करने जाते है। लेखक. आशुतोष सिंह शेखावत